चोटी की पकड़–89

मुन्नी घूमी, "सिपाही भगता नहीं, जीत की जगह है, लेता है। हमारी हो, तो अपनी गरदन नपाये देते हैं।" ड्योढ़ी की ओट में खड़े जटाशंकर ने कहा।


प्रेम की आँखों मुन्ना ने देखा।

"हम राह देख रहे थे। बता दो, कितने की चोरी हुई?"

पाँच लाख की"

"गलत है।"

मुन्ना ने जटाशंकर को देखा। जशकर हाथ पकड़कर कागजात के कमरे में ले गए। देर तक बातचीत की। हाल समझकर रुपए बताकर बीजक दे दिया। दोनों के गहरे संबँध हो गए।

छब्बीस


मुन्ना की निगाह नीली हो गई, चाल ढीली। चलकर महलवाले भीतरी तालाब में अच्छी तरह स्नान किया। 

गीली धोती से निकलकर बुआ के कमरे में गई। एक बज चुका था। चुन्नी फर्श पर चटाई बिछाकर दुपहर की नींद ले रही थी। मुन्ना की थाली चूल्हे पर रखी हुई। 

भोजन करके चटाई बिछाकर लेटी। आँख लग गई।

जब उठी, चुन्नी काम कर रही थी। बुआ लेटी हुई थीं। बगल की दूसरी कोठरी में मौसी बैठी हुई खाने का मसाला तैयार कर रही थीं।

मुन्ना कुछ नोट ले आई। बरामदे पर गिने। दस और पाँच रुपए के पहचानती थी। ये थोड़े थे।

 जटाशंकर को एकांत में बुला ले गई और कहा, "आज ही सिपाही इकट्ठे कर लेने हैं, बाज़ार चले जाओ, पुलिस के साफ़ेवाला कपड़ा खरीद लो।

 सबको सिपाहियों की तरह पेश करना है कि बाहर के पहरेवाले न पहचान पायें। पहले रानी का बदला। 

राजा से एक जवाब तलब करा लूँ, फिर ख़ज़ांची की खबर लूँ।"

"उससे क्यों तन गईं?"

"कट गया। फिर फाँसा। मैं फँसी। इसका काम करना है। मगर अकेली रही तो इसको अपने रास्ते न ला पाऊँगी। 

तुम्हारी मदद पार कर सकती है। तुम हमारा हाथ न छोड़ो, तुमसे दिल टूट चुका था। 

मगर तुमने, डराकर भी बाँध लिया। इस मामले में हम अकेले थे, अब दो-दो हैं। भेद किसी दिन खुलेगा, तब तक बच निकलना है, या पुख्ता सूरत निकाल लेनी है। तुम हमसे मिले, खजांची से भी, हमारा खजांची का यही हाल।

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